भारतेंदु हरिश्चंद्र का जीवन परिचय – Bhartendu Harishchandra Ka Jeevan Parichay

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नमस्कार दोस्तों, इस लेख में हम Bhartendu Harishchandra Ka Jeevan Parichay देखने जा रहे हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र — यह नाम सुनते ही आपके दिमाग में आधुनिक काल का पहला युग, भारतेंदु युग का नाम आया होगा। भारतेंदु युग के प्रारंभिक साहित्यकार, जिन्होंने इस युग का आरंभ किया, वे थे भारतेंदु हरिश्चंद्र। उनका मूल नाम हरिश्चंद्र था। उनके हिंदी साहित्य में अनमोल योगदान के लिए उन्हें “भारतेंदु” की उपाधि से सम्मानित किया गया, और हिंदी साहित्य का एक युग उनके नाम पर स्थापित हुआ।

हिंदी साहित्य को उनके कार्यकाल में एक ऊंचाई पर ले जाने का कार्य उन्होंने किया। भारतेंदु बहुमुखी व्यक्ति थे। न केवल उन्होंने अपने जीवनकाल में काव्य रचनाएँ कीं, बल्कि नाटक, पत्रकारिता और संपादकीय कार्य में भी उनका योगदान अमूल्य माना जाता है। भारतेंदु युग के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र का जीवन परिचय जानने के लिए यह लेख आपको अवश्य पढ़ना चाहिए, ताकि आप उनके जीवनकाल और साहित्यकाल के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त कर सकें।

विवरणजानकारी
नामभारतेंदु हरिश्चंद्र
जन्म तिथि9 सितंबर 1850
जन्म स्थानकाशी
पितागोपालचंद्र
मातापार्वती देवी
पत्नीमन्नोंदेवी
शिक्षास्वअध्ययन से संस्कृत, मराठी, बांग्ला, गुजराती, पंजाबी, उर्दू सीखी; क्वींस कॉलेज में अध्ययन
प्रमुख पत्रिकाएँ‘कविवचनसुधा’ (1868), ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’, ‘बाला बोधिनी’ (1874)
मुख्य रचनाएँ‘भक्तसर्वस्व’, ‘विद्यासुन्दर’, ‘नाटक’, ‘कश्मीर कुसुम’, ‘स्वर्ग में विचार सभा’
निधन6 जनवरी 1885
उपाधि‘भारतेंदु’ की उपाधि से सम्मानित

भारतेंदु हरिश्चंद्र का जीवन परिचय

भारतेंदु युग के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म 9 सितंबर 1850 को काशी में हुआ था। उनके पिता का नाम गोपालचंद्र था और माता का नाम पार्वती देवी। हरिश्चंद्र जी के पिता भी एक प्रतिभावान कवि थे। वे ‘गिरिधरदास’ नाम से कविताएँ लिखते थे, इसलिए उन्हें गोपालचंद्र-गिरिधरदास के नाम से भी जाना जाता था। भारतेंदु वैश्य परिवार से आते थे। अंग्रेजों की मेहरबानी के कारण उनके परिवार के पास धन-संपत्ति की कोई कमी नहीं थी। भारतेंदु के बाल्यावस्था में ही उनके माता-पिता का देहांत हो गया।

माता-पिता का साथ बचपन में ही छूट जाने के कारण भारतेंदु बहुत दुखी हो गए। जब वे पाँच साल के थे, तब उनकी माता का निधन हो गया था। हरिश्चंद्र की देखभाल के लिए उनके पिता ने दूसरी शादी की। इसके बाद, जब भारतेंदु दस वर्ष के थे, तो उनके पिता का भी निधन हो गया। उनकी सौतेली माता हरिश्चंद्र जी को बहुत परेशान करती थीं। इतनी धन-संपत्ति होने के बावजूद, वे बचपन के सुख से वंचित रह गए। हरिश्चंद्रजी का विवाह मात्र 10 वर्ष की आयु मे मन्नोंदेवी जी के साथ हुआ।

भारतेंदु बचपन से ही होनहार थे। उन्होंने घर पर रहकर ही स्वअध्ययन से संस्कृत, मराठी, बांग्ला, गुजराती, पंजाबी और उर्दू भाषाएँ सीखीं। कुछ समय बाद उन्होंने क्वींस कॉलेज, बनारस में प्रवेश लिया। उनकी ग्रहण शक्ति अद्भुत थी। उनकी कुशल बुद्धिमत्ता के कारण वे परीक्षा में अच्छे अंक से उत्तीर्ण होते रहे, लेकिन उनका मन पढ़ाई में नहीं लगता था। 3-4 साल इस कॉलेज में उन्होंने अध्ययन किया और फिर बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी। अंग्रेजी सीखने की इच्छा उनके मन में थी। उस समय बनारस में प्रसिद्ध लेखक राजा शिवप्रसाद जी का नाम चर्चित था। हरिश्चंद्र जी ने उनके पास जाना शुरू किया और उनसे अंग्रेजी की शिक्षा ली।

भारतेंदु हरिश्चंद्र का साहित्यिक परिचय

अपने साहित्यिक कार्यकाल की शुरुआत उन्होंने बचपन से ही की थी। उनके पिता भी उस समय के अच्छे कवि थे, और उनके आशीर्वाद से हरिश्चंद्र जी ने कविताएँ लिखने का प्रारंभ किया था। मात्र पाँच साल की आयु में हरिश्चंद्र जी ने एक दोहा रचा था और वह दोहा अपने पिताजी को सुनाया था। इतनी कम उम्र में बेटे ने कविता लिखना शुरू किया, यह देखकर पिताजी ने उनकी बहुत सराहना की।

15 वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी साहित्यिक रचनाओं का प्रारंभ किया। उन्होंने संपादकीय क्षेत्र में भी बड़ी भूमिका निभाई। मात्र अठारह वर्ष की आयु में, 1868 में, उन्होंने ‘कविवचनसुधा’ नाम से एक पत्रिका निकाली, जिसमें उस समय के साहित्यकारों की रचनाएँ छपती थीं। साल 1873 में उन्होंने ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ और समाज में स्त्री शिक्षा के प्रति जागरूकता निर्माण करने के लिए 1874 में ‘बाला बोधिनी’ नामक पत्रिका निकाली। अपने जीवनकाल में उन्होंने अनेक सामाजिक और धार्मिक कार्य भी किए।

हरिश्चंद्र जी कर्ण जैसे दानवीर थे; अपनी ज्यादातर धन-संपत्ति उन्होंने दान कार्य में लगा दी। वे भगवान विष्णु के उपासक थे और वैष्णव भक्ति का प्रचार और प्रसार करने के लिए 1873 के दौरान तदीय समाज की स्थापना की। इसके अलावा उन्होंने अनेक साहित्यिक संस्थाओं का निर्माण किया। अपनी धन-संपत्ति उन्होंने हिंदी साहित्य की सेवा में लगाई।

उस समय अंग्रेजी हुकूमत पूरे भारतवर्ष पर थी। हरिश्चंद्र जी के मन में अपने देश के प्रति बहुत ही आदर और सम्मान था, और लोगों के मन में देशप्रेम की ज्योति जलाने के लिए उन्होंने कार्य किया। इस कारण उन्हें कई बार ब्रिटिश सरकार के क्रोध का सामना करना पड़ा, लेकिन वे अपने कार्य में लगे रहे। उनकी लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी, और हिंदी साहित्यकारों में उनका स्थान बहुत ऊँचा बन चुका था।

हिंदी साहित्य में उनके योगदान के लिए उस समय के विद्वानों ने उन्हें ‘भारतेंदु’ की उपाधि देकर सम्मानित किया। उन्होंने अपनी साहित्यिक रचनाओं में ज्यादातर ब्रजभाषा का उपयोग किया। उनके कई काव्य रचनाएँ ब्रजभाषा में हैं, लेकिन उन्होंने गद्य रचना के लिए भी ब्रजभाषा का उपयोग किया। अपने पूरे जीवनकाल में हिंदी साहित्य की सेवा करते हुए उन्होंने समाज सेवा भी की। कोई भी दुःखी व्यक्ति जब उनके पास मदद मांगने आता था, तो वह खाली हाथ नहीं लौटता था। इसके कारण बाद में उनकी आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर हो गई।

भारतेंदु हरिश्चंद्र की साहित्यिक रचनाएँ

भारतेंदु हरिश्चंद्र न केवल प्रसिद्ध कवि थे, बल्कि वे एक प्रतिभाशाली लेखक, व्यंग्यकार, पत्रकार और गद्यकार भी थे। अपनी कल्पनाशील बुद्धि और बेहतरीन लेखनी से उन्होंने अनेक नाटक, उपन्यास, कहानियाँ आदि की रचनाएँ की। उनकी काव्यकृतियों में ‘भक्तसर्वस्व’ उनकी पहली रचना थी, जिसे 1870 के दौरान प्रकाशित किया गया था। उससे पहले, 1868 में, उनके द्वारा लिखित ‘विद्यासुन्दर’ नामक एक नाटक प्रकाशित हुआ था।

हिंदी साहित्य का प्रचार और प्रसार करने हेतु उन्होंने मासिक पत्रिकाएँ भी निकालीं, जिनके माध्यम से वे अपने कार्यकाल के हिंदी साहित्यकारों की रचनाएँ प्रकाशित करते थे। उन्होंने ‘नाटक’, ‘कश्मीर कुसुम’, ‘स्वर्ग में विचार सभा’ जैसे कई निबंधों की रचनाएँ कीं। ‘कविवचनसुधा’ और ‘बाला बोधिनी’ इन मासिक पत्रिकाओं में वे न केवल हिंदी साहित्य को प्रकाशित करते थे, बल्कि अंग्रेज सरकार द्वारा किए जाने वाले अन्याय और अत्याचार का पर्दाफाश भी करते थे।

वे एक निर्भीक पत्रकार थे। उनकी साहित्यिक रचनाओं में रीति कालीन, भावात्मक, व्यंग्यात्मक, और उद्बोधन शैली का दर्शन साहित्यप्रेमियों को देखने को मिलता है। उनकी साहित्यिक रचनाओं की एक लंबी सूची तैयार हो सकती है, इतनी रचनाएँ उन्होंने अल्पायु में कीं। नीचे हमने उनके द्वारा लिखित कुछ साहित्यिक रचनाओं के नाम दिए हैं।

काव्य रचनाएँ:

  • भक्तसर्वस्व
  • प्रेम फुलवारी
  • हरिश्चंद्र चन्द्रावली
  • प्रेममालिका
  • कृष्णचरित्र
  • वैराग्य विमर्श
  • प्रेमसरसी
  • दानलीला

नाट्य रचनाएँ:

  • वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति
  • अंधेर नगरी
  • भारत दुर्दशा
  • सत्य हरिश्चंद्र
  • नीलदेवी
  • रत्नावली
  • सती प्रताप
  • प्रेम योगिनी
  • सती आनंदमयी
  • विद्यासुंदर

निबंध और लेख:

  • कश्मीर कुसुम
  • स्वर्ग में विचार सभा
  • मंगलाचरण
  • वाणिज्य विवरण

पत्रिकाएँ:

  • कविवचनसुधा (1868 में स्थापित)
  • हरिश्चंद्र मैगजीन (1873 में स्थापित)
  • बाला बोधिनी (1874 में स्थापित)

अनूदित नाट्य रचनाएँ:

  • विद्यासुन्दर
  • पाखंड विडंबन
  • धनंजय विजय
  • कर्पूर मंजरी
  • भारत जननी
  • मुद्राराक्षस
  • दुर्लभ बंधु

अन्य रचनाएँ:

  • चन्द्रावली
  • भारतवर्षोदय
  • गणेशोत्सव वर्णन
  • हिंदी भाषा का महत्व
  • नागरीप्रचारिणी सभा का इतिहास

भारतेंदु हरिश्चंद्र की साहित्यिक रचनाओं के कुछ अंश

कविता “भारत दुर्दशा” से:

“अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी।
पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी॥”

नाटक “अंधेर नगरी” से:

“अंधेर नगरी चौपट राजा,
टके सेर भाजी टके सेर खाजा।”

कविता “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” से:

“वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति,
अहिंसा परमो धर्मः कहावत।
पंचकौरव संहारक, बने कृष्ण महाराज।
ऐसा कोई बुरा न माने, परंतु जनेऊ बिसार॥”

भारतेंदु हरिश्चंद्र का निधन

भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने न केवल हिंदी साहित्य की रचनाएँ कीं, बल्कि अपने कार्यकाल में हिंदी साहित्य को संजीवनी देने का कार्य भी किया। उन्हें आधुनिक हिंदी के जन्मदाता के रूप में जाना जाता है। उन्होंने अपना समय और धन दोनों ही हिंदी साहित्य के प्रति समर्पित किया। उनके कार्यकाल में उन्होंने कई नए हिंदी साहित्यकारों को तैयार किया। अल्पायु में ही उन्होंने हिंदी साहित्य के लिए जो योगदान दिया, उसका ऋण कभी चुकाया नहीं जा सकता।

हरिश्चंद्र जी ने अपनी सारी धन संपत्ति हिंदी साहित्य की उन्नति के लिए लगा दी। वे इतने दानशील थे कि दान करते-करते जीवन के अंतिम समय में कर्ज में डूब गए। वर्ष 1882 में उनका स्वास्थ्य खराब हुआ। उन पर उपचार किए गए, लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। आखिरकार, 6 जनवरी 1885 को केवल 35 वर्ष की आयु में उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा।

लेकिन उनके कार्यों को देखते हुए हिंदी साहित्य जगत ने उनके नाम से ‘भारतेंदु युग’ की स्थापना की। आज भी साहित्यप्रेमियों के दिल और दिमाग में उनकी साहित्यिक रचनाओं के रूप में वे जीवित हैं। अमर हिंदी साहित्यकारों में उनका नाम सदा लिया जाएगा।

FAQ’s

  • भारतेंदु हरिश्चंद्र कौन से युग के कवि थे?

    भारतेंदु हरिश्चंद्र भारतेंदु युग के कवि थे। यह युग हिंदी साहित्य के आधुनिक काल की शुरुआत का प्रतीक है, जिसमें उन्होंने हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

  • भारतेंदु युग कब आरंभ हुआ?

    भारतेंदु युग 19वीं सदी के उत्तरार्ध में, विशेष रूप से 1860 के दशक के आसपास, शुरू हुआ।

  • हिंदी गद्य का जनक कौन है?

    हिंदी गद्य का जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र को माना जाता है।

  • खड़ी बोली के जन्मदाता कौन है?

    भारतेंदु हरिश्चंद्र को खड़ी बोली के जन्मदाता माना जाता है।

  • भारतेंदु हरिश्चंद्र की पत्रिका क्या है?

    भारतेंदु हरिश्चंद्र की कविवचनसुधा (1868), हरिश्चंद्र मैगजीन (1873), और बाला बोधिनी (1874) यह प्रमुख पत्रिकाएँ हैं।

सारांश

हमें विश्वास है कि इस लेख में दिया गया Bhartendu Harishchandra Ka Jeevan Parichay आपको जरूर पसंद आया होगा। इस महत्वपूर्ण जानकारी को आप अपने दोस्तों और प्रियजनों के साथ शेयर करना न भूलें। हमारी वेबसाइट पर आपको इसी तरह के विभिन्न लेख देखने को मिलेंगे। अगर आप हमसे जुड़ना चाहते हैं तो व्हाट्सएप के माध्यम से जुड़ सकते हैं। धन्यवाद।

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